मेरे एक दोस्त हैं- साहित्य. आगे क्या करेंगे
पता नहीं, लेकिन फ़िलहाल वे “जैसा
नाम वैसा काम” जैसी भ्रामक उक्तियों को
पल-पल झुठलाते रहते हैं. दरअसल जिस दौरान वे अवतरित होने-होने को थे, उनके पिता को उन्हीं दिनों साहित्य का चस्का लगा या लगाया गया था.
जिंदगी की इन दोनों खुशियों को यादगार बना देने के लिए ही शायद उन्होंने मेरे इस
दोस्त का नाम साहित्य रख दिया हो.
पिछले साल भर से उनके परिवार में इस बात पर लड़ाई
चल रही है कि उन को स्कूल रूपी कांजीहाउस में डाला जाय या नहीं. यह उन्हीं शरारती
तत्वों की वजह से है, जिन्होंने हमारे इस दोस्त,
यानी साहित्य के पिता को साहित्य का रोग लगाया है. दूसरा खेमा उनके परिजनों का है
जो गरेलु फैसलों के मामले में काफी प्रभावशाली है. उनको लगता है कि उनके नौनिहाल को
पढाई से दूर करना भविष्य में उसके कुछ बन पाने की सारी संभावनाओं का गला घोंटना देना
है. आज के युग में तीन साल की उम्र भी क्या खेलने-कूदने और शरारत करने की होती है
भला. इनसे छोटी उम्र के बच्चे वर्दी पहने, टाई लटकाए, अपने भारी-भरकम बस्ते, लंच बॉक्स और पानी का
बोतल लिए, आँख-नाक से जलधार बहाते, सुबह-सुबह किसी कैदी-वाहन
जैसे स्कूली रिक्शे में नजर आते हैं. बहरहाल अब तक छुट्टा घूमने-चरने के लिए आज़ाद
हैं बच्चू.
अक्सर मुझे उनके साथ कुछ समय बिताने का मौका मिल
जाता है. कल भी वे मेरे पास थे. अपने पिता के साथ वे मेरे गरीबखाने में आये,
जिन्हें कहीं जाना था. मैंने कहा कि साहित्य को यहीं रहने दें. उन्होंने कहा ठीक
है. मेरे दोस्त बहुत खुश हुए, क्योंकि उनको ऐसा सुनहरा मौका कम ही नसीब होता है,
जब वे किसी बराबर के आदमी के संग अपना समय बितायें, जहाँ उन पर किसी की निगरानी न
रहे. उन्हें “ये मत करो, वो मत छुओ,” “गन्दी बात,” “अंकल को नमस्ते करो,” “दूध जल्दी
खतम करो” जैसी क्षुद्र बातों से बेहद नफरत है.
पिता के जाते ही वे अचानक अतिसक्रिय हो गए.
दुनिया जैसी है वैसी बनी रहे यह उन्हें कत्तई पसंद नहीं. हर चीज जहाँ है, वहाँ से
थोड़ी आगे या पीछे, ऊपर या नीचे होनी चाहिए. कहाँ रहे, यह उनकी मर्जी. लगे घर के
सामानों की जगह बदलने. वे संतुलन और असंतुलन के बीच चारों ओर निरंतर जारी आतंरिक
द्वंद्व को सतह पर लाने में जुट गए. मैं अवाक् ताकता रहा. संतुलन के पक्ष में होना
उस वक्त मेरे लिए लाजिमी हो गया. डाट लगा नहीं सकता था क्योंकि अव्वल तो यह उन्हें
बर्दास्त नहीं और दूसरे यह समता और जनतंत्र की भावना के भी खिलाफ है. तर्क-वितर्क
करता तो बस उतनी देर वे मेरी ओर ताकते हुए स्थिर रहते मेरा लिहाज करते हुए और फिर
क्रियाशील हो जाते.
ध्यान हटाने के लिए मैंने उनके आगे नहाने का प्रस्ताव रखा जिस पर वे तुरंत राजी हो
गए. बाथरूम में घुसते ही “अप्पे-आप, अप्पे-आप” की रट लगाने लगे. मैंने छोड़ दिया नल
चला कर. देर तक उनका छप छपा छप चला और बाथरूम के आलावा बाकी इलाका शांत रहा. इस
बीच मैंने भी अपना कुछ कम निपटा लिया. फिर वे बाथरूम से बाहर आये, लेकिन मेरे
बार-बार कहने से नहीं, बल्कि जब जी भर गया तभी. देह पोंछने लगा तो तौलिया लेकर खुद
ही पोंछने लगे. फिर कहने लगे- “छे बनाउन्दा.” मैं इस भाषा को समझने के लिए अभी जोर
ही लगा रहा था कि वे इसे “कर के समझाने” लगे. सामने पड़े गोंद का ट्यूब उठा कर गाल
में लगा लिया और मेरी ओर मुखातिब होकर बोले- “ब्लुछ.” मैंने झूठ-मूठ का ब्रस और
रेजर दिया. उन्होंने दाढ़ी बना ली. मैंने उनका मुँह धो-पोंछ दिया.
फिर उनका नंगा नाच शुरू हुआ, शब्दस: क्योंकि वे
कपड़ा पहनने को बिलकुल राजी नहीं थे. मेरा चश्मा उठाकर गर्व से बोले- “मैंने पापा
ता तछ्मा तोल दिया था.” मैंने कहा कि इसे नहीं तोड़ना है, तो बोले- “त्यूं.” अब
इसका भी कोई जवाब है. मैंने अपने चश्मे के बदले उनको माचिस की डिब्बी पकड़ा दी. यह
उनके लिए बिलकुल नई चीज थी शायद, क्यों कि अगर घर में कोई बीडी-सिगरेट पीने वाला न
हो, तो गैस-लाइटर से ही काम चलता है और पूजा घर में हो भी, तो बच्चों की पहुँच से
बाहर ही रहता है. माचिस की उपयोगिता से अपरिचित होने के चलते उसमें उनकी दिलचस्पी
जल्दी ही खत्म हो गई. नई खोज की
ओर ध्यान लगाया. कभी कंप्यूटर की ओर हाथ बढ़ाते तो कभी मोबाइल की ओर. मैंने उनके
भीतर छिपे चित्रकार का आवाहन करते हुए एक पन्ना कागज और पेन्सिल पकड़ा दिया. कुछ देर
उन्होंने अमूर्त चित्रकारी की, फिर अपने आसपास की दुनिया और अपनी पहुँच तक मौजूद
वस्तुओं के विखंडन की ओर प्रेरित हुए. मैंने तर्क-वितर्क करके उन्हें इन कामों के
बजाय कुछ खाने-पीने पर राजी कर लिया. गिलास में पानी ढालने लगा तो बोले- “अप्पे आप”
मैंने गिलास पकड़ा दी. वे पानी के जार की टोंटी खोल कर उसे भरने लगे. जितना पिया
नहीं उससे ज्यादा बहाया, पोछने के नाम पर उसे फैलाया, तब तृप्त हुए. मेरे पास
मेरीगोल्ड की फीकी बिस्कुट थी, वही उनके आगे पेश कर दिया. इस बीच मैं कुछ लिखने
में लगा रहा. थोडी देर बाद देखा कि वे धूमिल के तीसरे आदमी की तरह मेरीगोल्ड से
खेल रहे हैं. असल में उसका फीका स्वाद तो उन्हें पसंद नहीं आया, लेकिन आकार-प्रकार
में रूचि बनी रही.
मैं अपने काम में लगा रहा. इस बीच उन्होंने एक
बार कागज का जहाज बनवाया, एक बार पानी माँग के पिया और ढेर सारे काम निबटाए- झाड़ू-पोंछा,
अखबार की फड़ाई, शु-शु (मुझसे बता कर बाथरूम में), बल्ब जलाने बुझाने का अभ्यास,
जीवनोपयोगी वस्तुओं में खिलौनों के गुण की तलाश इत्यादि. मैं सिर्फ चोरी-चोरी यह
देखता रहा कि उनकी कोई कारगुजारी खतरनाक मोड़ न ले.
गुस्सा तब आया, जब अचानक वे मेरे करीब आये और
की-बोर्ड पर धड़-धड़ उँगली मारने लगे. मैंने बाँह पकड़ कर उनको करीब लाया और गंभीर
आवाज में बोला- “देखिये, अगर आप साहित्य हैं, तो मैं भी समीक्षा हूँ जिससे
अच्छे-अच्छों की रूह काँपती है. हर चीज की एक हद होती है. दिमाग खराब कर दिया.”
मेरे गुस्से का यह अंदाज उन्हें पसंद आया. वे हें-हें करते हुए मेरी तरफ इस
मिश्रित भाव से देखने लगे जिसमें शरारत, धृष्टता, भोलापन, और थोड़ी-थोड़ी ग्लानी का
भी पुट था. मुझे भी उनकी यह अदा भा गयी.
फिर हम दोनों ने खरबूजा खाया, चिड़िया उड़ –
बिल्ली उड़ खेला और थोड़ी देर सोने का नाटक भी किया. तब तक उनके पिता वापस आ गये, और
हमारी जुदाई की घड़ी भी. (दिगम्बर)
हम तो चाहते हैं साहित्य-समीक्षा ki जोड़ी सलामत रहे ..
ReplyDeleteशानदार। साहित्य जी इसी तरह समीक्षा जी पर हावी रहें और समीक्षा जी इसी तरह विनम्र दोस्त बनी रहें बस उसे खतरे से बचाने के लिए कभी-कभी जरा...
ReplyDeleteएक बच्चे के साथ बिताए कुछ घंटों का बहुत रोचक विवरण किया है आपने.
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