Thursday, June 14, 2012

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले


मेहंदी हसन नहीं रहे. पांच-छह महीने पहले भी उनकी मौत कि खबर उड़ी थी जो कुछ ही घंटे बाद अफवाह साबित हुई थी और तब उनके चाहनेवालों ने राहत की साँस ली थी. लेकिन इस बार उनका जाना हिंदी-उर्दू की सबसे मनहूस, तकलीफदेह और अपरिहार्य क्रिया के अर्थ में सच हो कर सामने आया. काफी लंबे अरसे से वे गंभीर और असाध्य बीमारी से जूझ रहे थे. सच कहें तो बीच-बीच में उनकी बीमारी की खबर सुन कर कहीं ज्यादा दुःख और लाचारी का अहसास होता था, मौत से भी ज्यादा. और सबसे क्षोभजनक था इलाज के लिए उनके भारत आने में अडंगेबाजी.

पिछले दस सालों से वे गा नहीं रहे थे, फिर भी हमलोग बराबर उन्हें सुन रहे थे, आगे भी हम उन्हें सुनते रहेंगे और आने वाली पीढियाँ भी सुनेंगी.

आठवीं में पढता था तो स्कूल में एक लड़के ने किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक गज़ल सुनाई थी-

मुग्घम बात पहेली ऐसी, बस वही बूझे जिसको बुझाये,
भेद न पाए तो घबराये, भेद जो पाए तो घबराये.

तभी से इसकी पंक्तियाँ जुबान पर चढ़ गयी थीं, हालाँकि इसका मतलब बिलकुल समझ में नहीं आता था. बड़ों से गीत-गजल के बारे में पूछने-जानने का माहौल भी तब कहाँ था. वर्षों बाद अभी कुछ दिन पहले ही उस गजल की याद आई. खोजबीन करने पर पता चला कि यह गजल मिर्जा ग़ालिब के उस्ताद आरजू साहब की लिखी है जिसे मेहंदी हसन ने पहली बार 1960  में गाया था. यूट्यूब पर इसको गौर से सुना और फिर बार-बार सुना.

फैज़ की बेमिशाल गजल- “गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले” मेहंदी हसन के सुर में गाये बिना एक ज़माने में हमारी महफ़िलें मुकम्मिल नहीं होती थीं. वैसे तो सभी बड़े गज़ल गायकों ने इसे गाया है, लेकिन यह गज़ल उसी तरह मेहंदी हसन की गज़ल हो गयी, जैसे अहमद फराज की “रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ” जिसके बारे में उन्होंने खुद ही यह स्वीकार किया था कि इस गजल की पहचान मेहंदी हसन के साथ इस तरह गुँथी हुई है कि अब मैं भी इसे उनकी ही मानता हूँ.

मेहंदी हसन ने कितने ही उस्ताद शायरों के दीवान और उनकी रचनाओं का उद्धार किया और उन्हें विद्वत्जनों की कैद से आज़ाद करा कर लोक के बीच प्रतिष्ठित किया. मीर की गज़ल “पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है,” और “देख तो दिल कि जाँ से उठता है, ये धुआँ से कहाँ से उठता है” तो महज कुछ नमूने हैं, फेहरिश्त बहुत लंबी है. अंदाजा लगाइए कि इन ग़ज़लों का पाठ करते हुए, कुछ शोधकर्ताओं को छोड़कर, कितने लोग इनकी गहराई में डूबते-उतराते?

मैं भीगे मन से जब यह सब लिख रहा हूँ तो मेरा मन बार-बार उस ओर भाग रहा है जहाँ मेहंदी हसन की बेशुमार, बेशकीमती नज्में-गजलें मुझे अपनी ओर बुला रही हैं. “रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,” ‘जब कोई प्यार से बुलाएगा, तुमको इक सख्श याद आएगा,” “भूली बिसरी चंद उम्मीदें चंद फ़साने याद आये,” “अंजुमन अंजुमन सनासाई, फिर भी दिल का नसीब तन्हाई,” “देख तो दिल कि जाँ से उठता है, ये धुआँ-सा कहाँ से उठता है” --और भी न जाने क्या क्या.

मेहंदी हसन का एक राजस्थानी लोक गीत है- “केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारो देश.”  अपनी जन्मभूमि की मिट्टी से उनका जितना गहरा लगाव था, उतनी ही गहराई और तड़प है इस गीत में. लेकिन हमारे देश का यह दुर्भाग्य कि कानूनी अडचनों के चलते जाते-जाते एक बार इस मिट्टी पर पाँव रखने की उनकी दरख्वास्त मंजूर नहीं हुई.  
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मेहंदी हसन को गायकी विरासत में मिली थी. उनका जन्म राजस्थान के लुना गाँव में एक कलावंत (पेशेवर गायकों की बिरादरी) परिवार में हुआ था. उनके पिता और चाचा दोनों ही ध्रुपद गायकी के जानेमाने उस्ताद थे. हमारी बहुलतावादी संस्कृति और बहुरंगी लोक-जीवन के लिए यह कोई अनोखी बात न तब थी, न आज है. भारत से लेकर पाकिस्तान तक, गायकी के इतने विविध रंग हैं, इतना विस्तृत दायरा है और लोकजीवन में इतनी गहरी पैठ कि अब तक तमाम “गर्म हवा” के झोंके उसे झुलसा नहीं पाए. मानव इतिहास के सबसे त्रासद विभाजन और विस्थापन की आग तथा सांप्रदायिक ताकतों की लगातार घिनौनी चालों का सामना करते हुए भी अब तक इसका कुछ खास नहीं बिगड़ा है. मेहंदी हसन अपने आप में इस बात के जिन्दा मिसाल हैं. बटवारे के दौरान अपने परिवार के साथ वे पाकिस्तान भले ही चले गए, भूगोल-भाषा-धर्म-संप्रदाय की सारी हदें-सरहदें लाँघ कर उनके गीत-गज़ल लोगों के दिलों में समाते गए. इसके लिए उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी. क्लासिकीय गायन से गजल की दुनिया में प्रवेश से पहले जीविका चलाने के लिए उन्होंने सायकिल और ट्रैक्टर मरम्मत करने का भी काम किया. मेहंदी हसन ने संगीत प्रेमियों की तीन पीढ़ी के कानों में रस घोला. कभी मरहम, कभी दिलासा, कभी उम्मीद, कभी सपना बनकर वे उनके बेहद करीब रहे.

आधी सदी से भी अधिक समय तक मेहंदी हसन की गायकी में इस महाद्वीप की जन-भावनाएं, उनके सुख-दुःख और सपने संगीत की स्वर लहरियों में हिलोरें लेती रही हैं. गज़ल का बेताज बादशाह तो वे थे ही, लेकिन उनकी गायकी किसी खाने या किसी चौहद्दी में बंद नहीं रही. उनकी दुनिया उतनी ही विस्तीर्ण और बहुआयामी रही है जितना यह महाद्वीप- ठेठ राजस्थानी और पंजाबी लोकगीत, ठुमरी, ख्याल, ध्रुपद और सूफी गीतों से लेकर गज़ल तक; उर्दू, फारसी, पश्तो, पंजाबी से लेकर हिंदी और बंगला तक; खुसरो, जफ़र, आरजू, ग़ालिब, मीर, फैज़, फराज, कतील से लेकर एकदम नए ज़दीद शायरों तक. जैसे-जैसे उर्दू शायरी हुश्नो-इश्क के तंग दायरे से बाहर निकल कर लोगों की जिंदगी और उसकी तल्ख़ हकीकतों से रूबरू होती गयी, इसके चाहनेवालों का घेरा बढ़ता गया. लगभग 60 साल की अपनी गायकी के दौरान मेहँदी हसन भी इस बदलाव के साथ कदम मिलकर चले. इस तरह परंपरा से शुरू हुई उनकी संगीत यात्रा आधुनिकता और समकालीनता की ऊँचाई तक पहुँची.

कॉलेज के दिनों में हमलोगों की जुबान पर अक्सर यह गज़ल होती थी, जिसका जिक्र किये बिना यह सारी बात अधूरी रह जायेगी-

अबके हम बिछड़े तो शायद कहीं ख्वाबों में मिलें,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें.
अब न वो मैं हूँ नतू है न वो माजी है ‘फ़राज़’,
जैसे दो साये तमन्ना के सराबों में मिलें.

बहुत पहले से वे हम लोगों को आगाह कर रहे थे और वो घड़ी आखिर आ ही गई-

मोहब्बत करने वाले काम न होंगे,
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे.

यही सच है. इसे स्वीकारना होगा.

4 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखा है, दिगंबर . बस एक वाक्यांश निकल दो -'मुसलमान होने के बावजूद .'' संगीत की तो विरासत अधिकांशतः मुसल्मानोंं की ही है . कोई हिंदू हो तो लिखा जा सकता है -'हिंदू होने के बावजूद' .
    मैं इसे सांझा कर रहा हूँ .

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    1. बात ध्रुपद गायकी के सन्दर्भ में थी, लेकिन जब अलग से आपने वाक्यांश का उल्लेख किया तो मुझे भी लगा कि इस बात का कोई अर्थ नहीं है.
      वाक्यांश हटा दिया.
      धन्यवाद.

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  2. वाह आदरणिय, बहुत सी बाते आज ऐसी पढ़ने में आईं जिनको आपके अलावा शायद ही कोई अन्य प्रस्तुत कर पाता....लाजवाब...अविस्मरणिय श्रद्धांजली..।

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